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Exclusive: क्या कृषि कानून पर मोदी सरकार का फैसला यू -टर्न है या मास्टर स्ट्रोक? पढ़ें इस रिपोर्ट में
जे.पी.चन्द्रा की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट
बिहार नेशन: शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरु नानक जयंती के मौके पर बड़ा ऐलान किया और तीनों कृषि कानूनों को वापस ले लिया। बीते कई महीनों से जारी किसानों के आंदोलन को देखते हुए सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया।
लेकिन मोदी सरकार किसानों के मुद्दे पर दूसरी बार झुकी है। साल 2014 में मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून का नया रूप सामने रखा था जिसका किसानों ने पुरजोर विरोध किया था और मोदी सरकार को कानून वापस लेना पड़ा था।
मनमोहन सिंह सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को ही हूबहू लागू करना पड़ा था और अब तीनों कृषि कानून सरकार ने वापस ले लिए हैं। वहीं मोदी सरकार ने गुरु नानक देवजी के जन्मदिन के मौके पर प्रधानमंत्री ने यह ऐलान करके एक तीर से कई कई शिकार किए हैं।
लेकिन इस कानून को वापस लेने पर कई बातें निकलकर सामने आ रही हैं। पंजाब, उत्तराखंड और यूपी के चुनाव इससे प्रभावित होना तय है। खासतौर पर यूपी में बीजेपी को पश्चिम यूपी में पिछड़ते हुए बताया जा रहा था। यह भी कहा जा रहा था कि लखीमपुर खीरी कांड के बाद किसान आंदोलन का विस्तार तराई के इलाकों में हो गया है। कुल मिलाकर 160 के करीब सीटें प्रभावित हो रही है। तो क्या यूपी को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लेना पड़ा।
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं कि किसानों को समझाने में सफल नहीं हुए इसलिए कानून वापस लिए जा रहे हैं। क्या वास्तव में ऐसा ही है या फिर सरकार को लगा कि किसानों का आंदोलन विधानसभा चुनावों में उल्टा पड़ सकता है।
लेकिन अब इसे आप आंकड़ों से समझिए
पश्चिमी यूपी की जाट बेल्ट में 110 सीटें आती हैं। बीजेपी को पिछली बार 88 सीटें मिली थी लेकिन इस बार कहा जा रहा था कि बीजेपी की सीटें एक तिहाई से ज्यादा कम हो सकती हैं। आखिर बीजेपी को 2012 में यहां से सिर्फ 38 सीटें ही मिली थी। इसी तरह तराई बेल्ट में विधानसभा की 42 सीटें आती हैं। इसमें से बीजेपी ने पिछली बार 37 सीटें जीती थी। जबकि अखिलेश को तीन और मायावती को दो सीटें मिली थी। इसी बेल्ट में बीजेपी को 2012 में सिर्फ पांच सीटें मिली थी। तब समाजवादी पार्टी को 25 और मायावती को दस सीटें मिली थी। तो कुल मिलाकर 152 सीटों में से बीजेपी को पिछली बार 125 सीटें मिली थी। क्या यहां सीटों को खोने का डर हावी रहा।
कुल मिलाकर नए कानून बनाने का फैसला आर्थिक था लेकिन वापस लेने का फैसला राजनीतिक है, चुनावी है। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि एक निजी चैनल द्वारा वोटर का नवंबर महीने का सर्वे बताता है कि बीजेपी का वोट सिर्फ 0.7 फीसदी कम हो रहा है लेकिन उसकी सीटें 108 कम हो रही हैं।
जबकि पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी को 41.4 फीसदी वोट और 325 सीटें मिली थी। इस बार सी वोटर कह रहा था कि बीजेपी को 217 सीटें ही मिल सकती हैं। अभी चुनाव 100 दिन दूर है। तब तक क्या सीटों में कमी की आशंका सता रही थी।
यूपी में दो करोड़ 41 लाख किसान हैं जिन्हें पीएम किसान सम्मान निधि से छह हजार रुपये सालाना मिलते हैं। इसके अलावा 28 लाख किसानों ने अर्जी लगा रखी है। यानि कुल हुए दो करोड़ 70 लाख किसान। अब अगर माना जाए कि एक किसान परिवार में तीन वोटर है तो वोटरों की संख्या आठ करोड़ पार करती है। अब अगर इसमें से 25 फीसदी भी नाराज है तो यह संख्या दो करोड़ बैठती है। इतने बड़े वर्ग की नाराजगी का जोखिम स्वभाविक है कि बीजेपी नहीं उठा सकती थी। आखिर बीजेपी को पिछली बार कुल मिलाकर साढ़े तीन करोड़ वोट मिला था। वैसे भी अमित शाह कह चुके हैं कि अगर 2024 में मोदी को फिर से जिताना है तो 2022 में योगी को जिताना है।
योगी की जीत में किसानों की नाराजगी आड़े आ सकती थी। तीनों कानूनों को वापस लेकर बीजेपी इस नाराजगी को दूर करने में किस हद तक कामयाब होती है यह देखना बाकी है लेकिन तय है कि कानून वापस लेने से किसानों का एक वर्ग बीजेपी के पास लौट कर आ सकता है। पंजाब में भी बीजेपी को फायदा हो सकता है। कैप्टन के साथ समझौता मजबूती के साथ हो सकता है। उत्तराखंड के मैदानी इलाकों का किसान भी बीजेपी के पक्ष में आ सकता है। बीजेपी यह उम्मीद कर सकती है।
अब कानून बनाने से पहले समझाने पर ज्यादा जोर देगी सरकार?
किसानों का आंदोलन एक साल से चल रहा है। 700 किसान शहीद हुए हैं। किसान सर्दी गर्मी बरसात में बैठे रहे हैं। ऐसे किसानों ने दिखा दिया है कि अगर आप में हिम्मत है, आपका आंदोलन अहिंसक है तो आप बड़ी से बड़ी सरकार को झुका सकते हैं। झुकने के लिए मजबूर कर सकते हैं। पीएम मोदी कह रहे हैं कि वह किसानों को समझाने में कामयाब नहीं हुए।तो क्या यह माना जाए कि आगे से जिसके लिए कानून बनाया जाएगा उस पक्ष का पहले समझाने पर ज्यादा जोर दिया जाएगा।
एक सवाल यह भी है कि इन कानूनों को ताबड़ तोड़ अंदाज में पास करवाया गया था खासतौर से राज्यसभा में। अगर इस बिल को प्रवर समिति या स्थाई समिति में रख दिया गया होता तो वहां कुछ संशोधन सामने आते जिन्हें लागू करने के बाद यह कानून बीजेपी का नहीं होकर पूरी संसद का होता। क्या आगे से विवादास्पद बिल चर्चा के बिना पास नहीं करवाए जाएंगे। इस सवाल पर भी गौर किया जाना चाहिए
लेकिन कृषि कानून के वापस लेने से कई सारी बातें भी सामने आएंगी । कई कानून जो पहले पारित हो चुके हैं उसपर भी राजनीति शुरू होगी चाहे वह सीएए बिल ही क्यूँ न हो ? राजनीतिक लड़ाई तो तेज जरूर होगी । कुल मिलाकर हम कृषि कानून की बात करें तो यह किसानों की और लोकतंत्र की जीत मानी जाएगी ।